नब्बे के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथ की दमदार मौजूदगी थी। सदन से लेकर सड़क तक लाल झंडा दिखता था। लेकिन अब वह दौर नहीं रहा। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि मौजूदा विधानसभा में केवल तीन वामपंथी विधायक (भाकपा माले) हैं। इस प्रकार जनाधार लगातार खिसकने से वामपंथ की जमीन बंजर-सी हो गई है। वाम दल मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों के पिछलग्गू की भूमिका में सिमटते दिख रहे हैं।
एक वह भी दौर था, जब बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलाें से हुआ करते थे। इससे पहले 1972 के विधानसभा में कारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (भाकपा) मुख्य विपक्षी दल बनी थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता थे। मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी (माकपा) और भाकपा माले के भी कई विधायक हुआ करते थे। 1991 में भाकपा के आठ सांसद थे। तब चतुरानन मिश्र केंद्रीय कृषि मंत्री थे।
1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। दो विपरीत राजनीतिक धुरी वाले दल जनसंघ और भाकपा के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे। तब भाकपा ने मध्यमार्ग अपनाया और उसके समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी।
यह घटना वामपंथी राजनीति के लिए एक नया मोड़ था। इसके बाद तो भाकपा ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया। उस पर कांग्रेस का पिछलग्गू होने का आरोप भी लगा।
वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी। उसपर मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने फसल बोयी। कालक्रम में वाम दल मंडलवादी राजनीति से उभरे दलों के पिछलग्गू बनते चले गए। वाम दल संसदीय राजनीति की सीमाओं में सिमटते गए। नक्सल मूवमेंट से भी वाम दलों का जनाधार कम किया।
फिर 80-90 के दशक में मध्य और दक्षिण बिहार में वामपंथी राजनीति नक्सलवाद के रूप में एक नयी करवट ली। शुरूआती दौर में पार्टी यूनिटी, एमसीसी, भाकपा माले (लिबरेशन) जैसे कई नक्सली संगठन चुनाव बहिष्कार और गैर संसदीय संघर्ष के नारे के साथ अलग-अलग इलाकों में सक्रिय थे। उनके साथ गरीबों, पिछड़ों व दलितों का बड़ा तबका साथ था। मंडलवादी राजनीति ने जिन सामाजिक आधारों को जातिगत आधार पर लालू प्रसाद के पक्ष में गोलबंद किया, लगभग वही तबका वामपंथी दलों का जनाधार था।
दिलचस्प यह कि वामपंथी दलों की पिछलग्गूपन की नीतियां आगे भी जारी रहीं। फिर मंडलवाद के असर ने वामपंथी पार्टियों के आधार पर करारा प्रहार किया। इसके अलावा नक्सलवाद की कोख से उपजे गैर संसदीय संघर्ष पर यकीन करने वाले वाम संगठनों ने भी वाम दलों की जमीन पर अपना विस्तार किया। इससे जनसंघर्ष में लगातार पिछड़ते चले गए वाम दलों की कमर ही टूट गई।
वाम दलों की एकता भी खंड-खंड खडि़त होती रही। समय-समय पर सत्ता के लोभ में उसके विधायक टूटते रहे और वामपंथी ताकत को मटियामेट करने में बड़ी भूमिका निभाई। हालांकि, वामपंथी दलों के नेता इन सबके लिए अलग-अलग कारणों को जिम्मेवार मानते हैं। भाकपा के राज्य सचिव सत्य नारायण सिंह सूबे में वामपंथ की कमजोर स्थिति के बारे में कहते हैं- ‘हाल के दशकों में ग्रामीण समाज की पुरानी सामंती व्यवस्था में कई बदलाव आए। लेकिन वामपंथी पार्टियों ने इन बदलावों के हिसाब से अपनी लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया।’ माकपा के मनोज चन्द्रवंशी का कहना है कि वामपंथी एकता की कमी और आम जनता के सवालों पर संघर्ष से पीछे हटने के कारण आज बिहार में वामपंथ की ये स्थिति है।